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जहां तुम हो, वहीं काबा है और वहीं काशी है और वहीं कैलाश है, वहीं गिरनार है

हम उसी के गांव में हैं। हम उसी के मंदिर में विराजमान हैं। जहां तुम हो, वहीं काबा है और वहीं काशी है और वहीं कैलाश है, वहीं गिरनार है
यह सारा गांव उसी का है। ये सब आंचल उसी के हैं। ये आकाश में उठे हुए बादल उसी के आंचल हैं। और यह चांदत्तारों की सजी बारात उसी की आंखें हैं। यह फूलों में जो मुस्कुराया है, कौन है? वृक्षों में जो हरा हो उठा है, वह कौन है? पशुओं में, पक्षियों में, मनुष्यों में, मुझ में, तुम में जो जाग्रत है, जो चैतन्य है, वह कौन है? हम उसी के गांव में हैं। हम उसी के मंदिर में विराजमान हैं। जहां तुम हो, वहीं काबा है और वहीं काशी है और वहीं कैलाश है, वहीं गिरनार है। कहीं और जाना नहीं, कुछ और पाना नहीं।

परमात्मा मिला हुआ है, इस बोध का नाम प्रार्थना है।

परमात्मा को पाना है, ऐसी अगर आकांक्षा है तो यह प्रार्थना नहीं है। परमात्मा मिला ही हुआ है; अब क्या करें? नाचें, खुशी मनाएं, जश्न मनाएं, उत्सव होने दें। परमात्मा मिला ही हुआ है श्वास—श्वास में; गीत गाएं, स्तुति को जगने दें। उसकी महिमा, उसका प्रसाद तो बरस ही रहा है। और क्या चाहते हो!

तुम्हारी भूल, सिर्फ इतनी ही है कि तुमने प्रार्थना बड़ी परंपरागत ढंग से शुरू की। और तुम उसी परंपरागत प्रार्थना को यहां आकर भी किए जा रहे हो!

मेरी दृष्टि को समझने की कोशिश करो।

पूछते हो तुम: मैं प्रभु को पुकारता हूं। प्रभु को जानते हो जो पुकारोगे? उसका नाम, पता, ठिकाना कुछ मालूम है? राम को पुकारते होओगे—धनुर्धारी राम! कि कृष्ण को पुकारते होओगे—मोरमुकुट, मुरली वाले कृष्ण! कि बुद्ध को पुकारते होओगे, कि महावीर को! मगर ये सब तो तरंगें ही हैं उसके सागर की। उसको इन्होंने जान लिया है, इसलिए इन्हें हमने भगवान कहा है। जिसने उसे जाना, वही भगवान। तुम भी भगवान हो, सिर्फ अपने से अपरिचित हो, बस इतनी भूल हो रही है। सिर्फ अपनी तरफ पीठ किए खड़े हो, इतनी भूल हो रही है।

किसको पुकारते हो? उसका कोई नाम है! उसका कोई भी नाम नहीं। किस दिशा में पुकारते हो? उसकी कोई दिशा है! सब दिशाओं में वही है। कौन—सा विधि—विधान है तुम्हारी प्रार्थना का? फूल चढ़ाते हो शंकर जी की पिंडी पर? घंटी बजाते हो? गायत्री पढ़ते हो? वेद की ऋचाएं दोहराते हो? कि कुरान की आयतें गुनगुनाते हो? क्या करते हो?

यह सब तो शब्द ही हैं। प्रार्थना का इनसे कुछ लेना—देना नहीं है। प्रार्थना तो मौन समर्पण है। वहां वेद भी छूट जाते हैं, कुरान—बाइबिल भी छूट जाती हैं। वहां हिंदू हिंदू नहीं होता, मुसलमान मुसलमान नहीं होता, ईसाई ईसाई नहीं होता। प्रार्थना में प्रार्थी होता है। वहां कोई और नहीं बचता! वहां मन ही नहीं बचता। मांगने वाला गया कि मन गया। मन है भिखमंगा। मन का रूप है: और मिले, और मिले, और मिले…।

तुम किस प्रभु को पुकारते हो? आकाश की तरफ देख कर? पृथ्वी में वह नहीं है? आंख खोलकर पुकारते हो? आंख बंद करो तो वह नहीं है? आंख बंद करके पुकारते हो? आंख खोलो तो वह नहीं है? कोई विधि—विधान नहीं है उसे पुकारने का। सिर्फ समग्ररूप से मौन हो जाने में ही तुम्हारे भीतर जो अहोभाव जगने लगता है—निःशब्द। तुम्हारे भीतर ही एक दीया जलने लगता है—शून्य का, मौन का; निर्विकल्प; निर्विचार का। अकंप उसकी लौ होती है। तुम्हारे भीतर ही एक सुगंध फूटने लगती है। तुम्हारे भीतर का ही कमल खिलता है। वहीं सुगंध प्रार्थना है।

प्रार्थना कोई क्रियाकांड नहीं है कि ऐसे की, कि वैसे की, प्रार्थना सहज स्फूर्त आनंद का भाव है। जहां बैठे, वहीं हो गई, जहां खड़े हुए, वहीं हो गई। चलते—चलते हो गई, काम करते—करते हो गई। कोई अलग कोना खोजने की जरूरत भी नहीं है। नहाये तो ठीक, न नहाए तो ठीक। प्रार्थना औपचारिकता नहीं है।

तुम कहते हो: नियमित प्रार्थना करता हूं। एक यंत्रवत बात हो गई होगी। रोज—रोज कर लेते हो, इतने दिन से करते हो, लत पड़ गई होगी। नहीं करते होओगे तो अड़चन होती होगी। नहीं करते होओगे तो वैसी ही अड़चन होती होगी जैसे धूम्रपान करने वाले को धूम्रपान करने न मिले। चाय पीने वाले को चाय न मिले। वैसे प्रार्थना जो करता है, उसे एक दिन प्रार्थना करने को न मिले तो उसे बड़ी बेचैनी होती है। कुछ खाली—खाली लगता है, कुछ चूका—चूका मालूम होता है। कुछ कमी रह गई। मन लौट—लौट वहां जाता है। मन की आदत है यंत्रवत जीने की—मन यंत्र ही है। और यंत्र अपनी पूरी प्रक्रिया चाहता है। जैसा रोज होता रहा,