‘मेरा टेसू यहींअड़ा खाने को मांगे दही बड़ा!
सुबोध पाठक
( पंचांग ) में दर्ज हर तारीख़ किसी त्यौहार , किसी परम्परा या किसी विशेष दिन का इशारा करती है। इसीलिए हमारा देश त्योहारों का देश कहा जाता है। क्षेत्र बार त्योहार और परंपराएं भी हमारे देश की संस्कृति को जीवंत रखती है। ब्रज क्षेत्र में मनाया जाने वाला “टेसू – झेंझी” का विवाह भी एक त्योहार और परम्परा से कम नही है। यह परंपरा हर वर्ष बच्चों द्वारा शरद नवरात्रि की नवमी से लेकर शरद पूर्णमासी तक निभाई जाती है।
इस दौरान बच्चे घर – घर जाकर चंदा(भीख) इकट्ठा करते हैं और पूर्णिमा की रात टेसू – झेंझी का विवाह किया जाता है। कई जगह इस परंपरा को आज भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। लोग इसके शादी के कार्ड छपवाते हैं , बैंड, बाजों और आतिशबाजी और बाकायदा डांस के साथ टेसू की बारात निकलती है। द्वारचार से लेकर झेंझी की पैर पूजाई और कन्यादान तक की रश्में होती है।
सर्वाधिक दुख की बात तो यह है कि इस विवाह को पूरा नहीं किया जाता , पूरे सात फेरे पड़ने से पहले ही टेसू का सिर धड़ से काटकर अलग कर दिया जाता है और झेंझी को फोड़ देते हैं और रातों रात नदी तालाब में दोनों ही सिरा दिए जाते।
इटावा जनपद ब्रज क्षेत्र में समाहित है। इसलिए इस परंपरा को बखूबी निभाया जाता। एक तरफ रामलीलाओं की धूम होती ,तो दूसरी तरफ घरों की चौखट पर अंधेरा होते ही टेसू झेंझी लिए किशोर और किशोरियां झुंड के साथ पहुंचते और लोकगीत व गाने गुंजाते है-
‘मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे, दही बड़ा’
मेरी झेंझी को रचो है व्याह, ब्याह को दहेज देव’
टेसू अटर करें , टेसू बटर करें, टेसू लेई के टरे’
बच्चों की टोलियाँ के हाथ में एक सजा – धजा मिट्टी का तीन टांग का दूल्हा होता , जिसे टेसू कहते। तीन लकड़ियों के ढांचे पर धड़ रखा होता। उस पर एक टिमटिमाता दीपक जलता। जबकि झेंझी एक मिट्टी की मटकी होती, जिसमे चारों ओर ऊपर से नीचे तक छेद होते। मटकी के अंदर दीपक जलता रहता,छेदों से दीपक की किरणें झेंझी की खूबसूरती को बयान करती है।
चंदा माँगने आने वाले किशोर किशोरियों से चंदा देने के बदल ख़ूब सारे टेसू, झेंझी के पारंपरिक गीत सुनने की फरमाइश होती।
*बताया जाता है कि टेसू-झेंझी विवाह की परंपरा महाभारत काल से शुरू हुयी और इसे मनाने के पीछे की कहानी भी उसी वक़्त की है ।इटावा जिले में एक तहसील है, चकरनगर। इस तहसील का वास्ता महाभारत काल से जोड़ा जाता है। तब चकरनगर , चक्रनगरी कहलाता था। पांडवों ने तब अपना अज्ञातवास यहाँ ही बिताया था । भीम ने इसी चक्रंनगरी में हिडिम्बा राक्षसी से विवाह किया । बाद में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। जिसका नाम घटोत्कच था। कुछ सालों बाद घटोत्कच के ही पुत्र बर्बरीक ( टेसू ) को एक ब्राह्मण कन्या से प्रेम हो गया । वह उससे विवाह करना चाहता था। परंतु कन्या के पिता को ये स्वीकार्य नही था । कन्या ब्राह्मण थी, बर्बरीक क्षत्रीय। इसलिए पिता ने कई प्रपंच रचे और विवाह टालना चाहा। इनमें से एक ये भी था कि पिता ने बर्बरीक और झेंझी का विवाह ये कहकर 16 दिन के लिए टाल दिया कि उनकी पुत्री अभी 16 दिन साँझी खेलेगी। इसलिए ब्रज और उसके आसपास रामनवमी से पहले पित्र पक्ष के दौरान गोबर की तरैया ( साँझी ) लगाने की परंपरा किशोरियां सम्पन्न करती हैं।*
*जब बर्बरीक 16 दिन बाद वापस आया तो पिता ने फिर टाल दिया,किंतु जब पूर्णमासी के दिन वो विवाह ना टाल पाए तो उन्होंने बर्बरीक से युद्ध किया।बर्बरीक युद्ध में पराजित हुआ और उसने झेंझी से दुबारा आने का वायदा करके यमुना में छलांग लगा दी। इधर पुत्री के अर्द्ध विवाह को ना मानकर झेंझी को भी मार दिया गयाऔर इस तरह इस प्रेमकहानी का दुःखद अंत हुआ और बाद में बर्बरीक का बध छल से भगवान कृष्ण ने सुदर्शन चक्र सेमहाभारत दौरान किया।*
हालाँकि बाद में इस विवाह को एक परंपरा के रूप में मनाया जाने लगा। इसी अधूरे विवाह के साथ हिंदुओं की सबसे बड़ी रस्म की शुरुआत हुई। ये माना गया कि पूर्णमासी को टेसू – झेंझी के विवाह के बाद ही सहालग ( विवाह का उपयुक्त समय ) शुरू होता है। कई जगह ये मान्यता है कि जिनका विवाह न हो रहा हो तो उन्हें टेसू – झेंझी का विवाह कराना चाहिए। ऐसा करने से विवाह में व्यवधान नहीं आता।
टेसू – झेंझी के विवाह की ये रिवाज ग्राम्य जीवन के रिवाजों में लिपटा किशोर किशोरियों का खेल भर है।लेकिन न जाने कितनी परम्पराएं हमने अपने शहरी तौर तरीकों के कारण पीछे छोड़ दीं हैं। वरना ये ताज्जुब ही है कि आजकल ही नहीं, बल्कि20-25 साल पहले भी टेसू झेंझी का विवाह कस्बों के उन मोहल्लों में ही किया जाता था, जहाँ ग्रामीण परिवेश था , जहाँ घरों के आँगन मिट्टी के थे ,रोटी चूल्हे की आंच पर पकती थी और जीवन खेतों खलिहानों से चलता था।
इस परंपरा का निर्वाहन अब छोटे और गरीब परिवार के बच्चों के कंधों पर ही शेष है।धनिक और बड़े पैसे वालों के बच्चे इस परंपरा को निभाना शान के खिलाफ मानते । इस वजह ये परंपरा सिर्फ ग्रामीण परिवेश तक ही सीमित रह गयी। उन्होंने अपने प्रयासों से इस प्राचीन परंपरा को आज तक सहेजा हुआ है।
‘मेरा टेसू यहीं अड़ा खाने को मांगे दही बड़ा
शरद पूर्णिमा पर टेसू झेंझी विवाह के साथ शुरु हो जायेगा सहालग
ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी निभाई जा रही त्यौहार की परम्परायें
।भारतीय कैलेंडर ( पंचांग ) में दर्ज हर तारीख़ किसी त्यौहार , किसी परम्परा या किसी विशेष दिन का इशारा करती है। इसीलिए हमारा देश त्योहारों का देश कहा जाता है। क्षेत्र बार त्योहार और परंपराएं भी हमारे देश की संस्कृति को जीवंत रखती है। ब्रज क्षेत्र में मनाया जाने वाला “टेसू – झेंझी” का विवाह भी एक त्योहार और परम्परा से कम नही है। यह परंपरा हर वर्ष बच्चों द्वारा शरद नवरात्रि की नवमी से लेकर शरद पूर्णमासी तक निभाई जाती है।
इस दौरान बच्चे घर – घर अपने टेसू व झेंझी लेकर जाते है अौर पारम्परिक गीत सुनाते है इस दौरान लोग बच्चों को रुपये व पुरुष्कार भी देते है । इन्ही रुपयों को बच्चे जोड़ते है अौर शरद पूर्णिमा की रात टेसू – झेंझी का विवाह धूमधाम से करते है। कई जगह इस परंपरा को आज भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। लोग इसके शादी के कार्ड छपवाते हैं , बैंड, बाजों और आतिशबाजी और बाकायदा डांस के साथ टेसू की बारात निकलती है। द्वारचार से लेकर झेंझी की पैर पूजाई और कन्यादान तक की रश्में होती है।
सर्वाधिक दुख की बात तो यह है कि इस विवाह को पूरा नहीं किया जाता , पूरे सात फेरे पड़ने से पहले ही टेसू का सिर धड़ से काटकर अलग कर दिया जाता है और झेंझी को फोड़ देते हैं और रातों रात नदी तालाब में दोनों ही सिरा दिए जाते।
गॉवों में आज भी निभायी जा रही परम्परा
आज भी गॉव त्यौहारों की परम्परा को जीवित रखे हुये है। जब कि शहरों में सिर्फ रस्म अदायगी की जाती है। इटावा ब्रज क्षेत्र का हिस्सा है। इसलिए टेसू व झेंझी के विवाह को कई क्षेत्रों में बखूबी निभाया जाता। एक तरफ रामलीलाओं की धूम होती है तो दूसरी तरफ घरों की चौखट पर अंधेरा होते ही टेसू झेंझी लिए किशोर और किशोरियां झुंड के साथ पहुंचते और लोकगीत व गाने गुंजाते है-
ये गीत है काफी प्रचलित
मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे, दही बड़ा
मेरी झेंझी को रचो है व्याह, ब्याह को दहेज देव
टेसू अटर करें , टेसू बटर करें, टेसू लेई के टरे’
मिटटी के होते है टेसू व झेंझी
टेसू व झेंझी मिटटी से बने होते है जिन्हें सजाया व संवारा जाता है बच्चों की टोलियाँ के हाथ में एक सजा – धजा मिट्टी का तीन टांग का दूल्हा होता जिसे टेसू कहते। तीन लकड़ियों के ढांचे पर धड़ रखा होता। उस पर एक टिमटिमाता दीपक जलता। जबकि झेंझी एक मिट्टी की मटकी होती, जिसमे चारों ओर ऊपर से नीचे तक छेद होते। मटकी के अंदर दीपक जलता रहता,छेदों से दीपक की किरणें झेंझी की खूबसूरती को बयान करती है। टेसू लेकर आने वाले किशोर किशोरियों से चंदा देने के बदल ख़ूब सारे टेसू, झेंझी के पारंपरिक गीत सुनने की फरमाइश भी होती है।
महाभारत काल से है यह परम्परा।
टेसू-झेंझी विवाह की परंपरा महाभारत काल से चली आ रही है। इसे मनाने के पीछे की कहानी भी उसी समय की है ।इटावा जिले के चकरनगर का वास्ता महाभारत काल से जोड़ा जाता है। तब चकरनगर , चक्रनगरी कहलाता था। पांडवों ने अपना अज्ञातवास यहाँ ही बिताया था भीम ने इसी चक्रंनगरी में हिडिम्बा राक्षसी से विवाह किया । बाद में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। जिसका नाम घटोत्कच था। कुछ सालों बाद घटोत्कच के ही पुत्र बर्बरीक ( टेसू ) को एक ब्राह्मण कन्या से प्रेम हो गया वह उससे विवाह करना चाहता था। परंतु कन्या के पिता को ये स्वीकार्य नही था । कन्या ब्राह्मण थी, बर्बरीक क्षत्रीय। इसलिए पिता ने कई प्रपंच रचे और विवाह टालना चाहा। इनमें से एक ये भी था कि पिता ने बर्बरीक और झेंझी का विवाह ये कहकर 16 दिन के लिए टाल दिया कि उनकी पुत्री अभी 16 दिन साँझी खेलेगी। इसलिए ब्रज और उसके आसपास रामनवमी से पहले पित्र पक्ष के दौरान गोबर की तरैया ( साँझी ) लगाने की परंपरा किशोरियां सम्पन्न करती हैं।
जब बर्बरीक 16 दिन बाद वापस आया तो पिता ने फिर टाल दिया ,किंतु जब पूर्णमासी के दिन वो विवाह ना टाल पाए तो उन्होंने बर्बरीक से युद्ध किया । बर्बरीक युद्ध में पराजित हुआ और उसने झेंझी से दुबारा आने का वायदा करके यमुना में छलांग लगा दी। इधर पुत्री के अर्द्ध विवाह को ना मानकर झेंझी को भी मार दिया गयाऔर इस तरह इस प्रेम कहानी का दुःखद अंत हुआ और बाद में बर्बरीक का बध छल से भगवान कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से महाभारत के दौरान किया।