Saturday , November 23 2024

*छठ समाज को जोड़ने वाला व्रत है*

*सूरज सबसे जुड़े हुए हैं, सबको सबसे जुड़े हुए हैं,सूरज सबसे जुड़े हुए हैं, सबकोसबको जोड़ते भी हैं।*

ए ,के, सिंह
इटावा,भारतीय पर्वो में दीपावली और छठ का अपना एक गुढ़ अर्थ और आध्यात्मिक महत्व रहा है। भगवान बुद्ध ने कहा “आत्म दीपो भवः” यानि अपना प्रकाश स्वंय बनो। संत कबीर साहब ने कहा “अपने घट दियना बारू रे” अर्थात अपने शरीर रुपी घट में प्रकाश रुपी दीप जलायें। इन संत महापुरुष का कहना है कि सांसारिक दीपावली के साथ- साथ पारमार्थिक दीपावली भी मनायें। अपने अंतर्मन में ज्ञान, वैराग्य, दया, प्रेम जैसे सदगुण रुपी दीप जलाकर खुद को और संसार को प्रकाशित करें।
हर साल दीपावली पर करोड़ों रुपयों के पटाखों का उपयोग होता है। यह सिलसिला कई दिन तक चलता है। कुछ लोग इसे फिजूलखर्ची मानते हैं तो कुछ उसे परम्परा से जोड़कर देखते हैं। पटाखों से बसाहटों, व्यावसायिक, औद्योगिक और ग्रामीण इलाकों की हवा में तांबा, कैलशियम, गंधक, एल्युमीनियम और बेरियम प्रदूषण फैलाते हैं। धातुओं के अंश कोहरे के साथ मिलकर अनेक दिनों तक हवा में बने रहते हैं। उनके हवा में मौजूद रहने के कारण प्रदूषण का स्तर कुछ समय के लिये काफी बढ़ जाता है। विभिन्न कारणों से देश के अनेक इलाकों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से अधिक है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण, भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है, उसे और अधिक हानिकारक बना देता है। पटाखों के चलाने से स्थानीय मौसम प्रभावित होता है। आवाज के 10 डेसीबल अधिक तीव्र होने के कारण आवाज की तीव्रता दोगुनी हो जाती है, जिसका बच्चों, गर्भवती महिलाओं, दिल तथा सांस के मरीजों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पटाखे से निकलने वाले धुएं, रसायन और गंध दमा के रोगियों के लिए घातक साबित होते हैं। इसलिए दिवाली के दिन और उसके बाद के कुछ दिनों में भी दमा के रोगियों को हर समय अपने पास इनहेलर रखना चाहिये और पटाखों से दूर रहना चाहिये। इन दिनों उनके लिये सांस लेने में थोड़ी सी परेशानी या दमे का हल्का आघात भी घातक साबित हो सकता है। पटाखों के कारण वातावरण में हानिकारक गैसों तथा निलंबित कणों का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण फेफड़े, गले तथा नाक संबंधी गंभीर समस्यायें भी उत्पन्न होती हैं। दिवाली से पहले अधिकतर घरों में रंग-रोगन कराया जाता है, घरों की सफाई की जाती है। पेंट के गंध एवं धूल-कण सांस के रोगियों के लिए आफत बन जाती है।
दिवाली खुशियों और उल्लास का त्योहार है। आप फूड वेस्टेज को कम करने में मदद कर पर्यावरण संरक्षण में योगदान दे सकते हैं और गरीब बच्चों व परिवारों को मिठाईयां व कपड़े बांट सकते हैं। यह न सिर्फ आपकी दिवाली को खास बना देगा, बल्कि आसपास के माहौल को भी खुशनुमा बना देगा। खरीदारी करने में पर्यावरण के अनुकूल और प्राकृतिक संरक्षण को ध्यान रखना चाहिए।
आज के समय में विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है। सरकार को पटाखा निर्माताओं को कम धुआं और आवाज करने वाले ‘एनवायरमेंट फ्रेंडली पटाखों’ के आविष्कार के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। सरकार और पर्यावरण प्रेमी पर्यावरण को बचाना चाहते हैं तो उन्हें पटाखों के निर्माण और उनकी गुणवत्ता पर पूरा ध्यान देने की जरूरत है न कि पटाखे जलने से रोकने पर। वरना दीवाली अंधकार पर प्रकाश की नहीं, बल्कि प्रकाश पर धुएं की विजय का ही त्योहार बनी रहेगी। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उत्पादों को खरीदने से बचना चाहिए।
मनुष्य तो व्रत करता ही है, परंतु इस पर्व को उत्सव बनाने के लिए मनुष्य ने प्रकृति और पर्यावरण का ही सहारा लिया है। हम सब जानते हैं कि सूरज से ही जीवन है। प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा भी सूरज ही करता है। इसलिए कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी एवं सप्तमी 4 दिनों तक लगातार चलने वाला छठ पर्व भारत ही नहीं, अब तो इसके बाहर भी काफी धूमधाम से मनाया जाता है। सभी लोग घाट पर सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं और उनसे पुनः बहुत कुछ मांगते हैं क्योंकि पूरा जीवन देने वाला तो वही है। सूरज से बेटा के साथ-साथ बेटी भी व्रती महिलाएं मांगती हैं। वह एकमात्र देवता है जिनकी डूबते समय भी पूजा होती है।
छठ पर्व सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। यह पर्व बिहार वासियों का सबसे बड़ा पर्व है। ये उनकी संस्कृति है। स्वच्छता का प्रतीक है। इन दिनों लोग अपने घर के प्रत्येक सामान की साफ- सफाई करते हैं। साथ ही सार्वजनिक स्थलों को भी साफ करते हैं। बिहार और आसपास के राज्यों में सुर्योपासना का पर्व ‘छठ’ धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। अंततः सूर्य के पूर्ण प्रकाश का दर्शन होता है। इस ईश्वरीय प्रकाश को पाकर साधक कृत-कृत्य हो जाता है।
छठ पर्व में भारतीय जीवन दर्शन भी समाहित है। यह समूचे विश्व को बताता है कि उगते हुये अर्थात उदीयमान सूर्य को तो संपूर्ण जगत प्रणाम करता है लेकिन हम तो उसी श्रद्धा और भक्ति के साथ ससम्मान डूबते हुये अर्थात अस्ताचलगामी सूर्य की भी उपासना और पूजा करते है। सूरज का समय अटल है। यह हमारे भारतीय समाज का आशावादी विश्वास है। छठ समाज को एक करने वाला व्रत है। सूरज सबसे जुड़े हुए हैं इसलिए वह सबको जोड़ देते हैं। जाति- वर्ग, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष सब मिलकर एक घाट पर एक साथ सूरज को प्रणाम करते हैं।
बड़ा ही प्यारा और सुखद अनुभूति होती है। बिना सामूहिक हुए पर्वों का आनंद नहीं लिया जा सकता है किंतु कोविड-19 के प्रभाव को देखते हुए दो गज की दूरी बनाना जरूरी है।

*डॉ. नन्दकिशोर साह*
सफलता का सोपान : इंटरव्यू पुस्तक, उपकार प्रकाशन आगरा के लेखक हैं और समसामयिक मुद्दों पर लेखन में रूचि रखते है।