अब तक मनुष्य आध्यात्मिक बनाने कि हमने जो योजना दी है, उस योजना में बुनियादी भूल है और वह बुनियादी भूल यह है कि अब तक अध्यात्म को एक सामूहिक उपक्रम, एक कलेस्टिव एफर्ट समझा हुआ है। हमने समझा हुआ है कि आध्यात्मिक समाज बनाना है तो एक-एक आदमी को समूह के ढांचे पर ढालना है। यह बात नि गलत है, अवैज्ञानिक है। दो आदमी एक जैसे नहीं बनाए जा सकते, न बनाने का कोई उपाय है। जिस दिन पृथ्वी पूरी आध्यात्मिक होगी, उस दिन एक-एक आदमी अपने जैसा होगा
अब तक मनुष्य आध्यात्मिक बनाने कि हमने जो योजना दी है, उस योजना में बुनियादी भूल है और वह बुनियादी भूल यह है कि अब तक अध्यात्म को एक सामूहिक उपक्रम, एक कलेस्टिव एफर्ट समझा हुआ है। हमने समझा हुआ है कि आध्यात्मिक समाज बनाना है तो एक-एक आदमी को समूह के ढांचे पर ढालना है। यह बात नि गलत है, अवैज्ञानिक है। दो आदमी एक जैसे नहीं बनाए जा सकते, न बनाने का कोई उपाय है। जिस दिन पृथ्वी पूरी आध्यात्मिक होगी, उस दिन एक-एक आदमी अपने जैसा होगा।
फ्रांस में एक बादशाह था चार्ल्स पंचम उसको यह खयाल सवार था कि सारे लोगों को एक नोति एक आचरण, एक विचार का बनाया जाए। उसने हजारों लोगों को फांसी पर लटकवा दिया, सिर्फ इसलिए कि आदमी अलग-अलग क्यों हैं, एक जैसे होने चाहिए। लेकिन फिर भी वह सफल नहीं हो पाया। बुदा हो गया। तब तक उसने हजारों लोग मार डाले थे, लेकिन न तो सारे लोग एक विचार के बनाए जा सके, न एक चरित्र के बनाए जा सके, न एक मत में एक झंडे के नीचे लाए जा सके। फिर वह थक गया, गया, और उसने जाकर राज्य छोड़ दिया और एक मोनेस्ट्री में सन्यासी होकर भर्ती हो गया।
लेकिन जिंदगी भर की आदत थी उसको, तो उसने अपने एक कमरे में बारह घड़िया लगवा लो और चेष्टा करता था कि बारह घड़िया एक सा समय दें। बारह बजे तो सब में बारह बज जाए, एक मिनट सेकेंड का फर्क न हो लेकिन दो-चार दिन में ही उसे मुश्किल मालूम हुई, बारह घड़िया थो, उनको एक साथ चलाना मुश्किल था। घड़ियों को ही चलाना मुश्किल हो गया, कोई मिनट आगे निकल जाती, कोई मिनट पौछे रह जाती। उसने कोध में घड़ियां तोड़ डाली। लेकिन घड़िया तोड़ कर उसे खयाल आया कि जब बारह घड़ियां भी एक जैसी नहीं चलाई जा सकता, तो मैं सारे देश के लोगों को एक जैसा चलाने की कोशिश कर रहा था, वह पागलपन था घड़ियां तो मृत हैं, वे भी एक जैसी नहीं चलाई जा सकती, तो जीवित मनुष्यों को एक से सांचों में कैसे ढाला जा सकता है।
वह जो चार्ल्स पंचम को जो पागलपन सवार था, वही इस देश के धर्मगुरुओं को हजारों साल से सवार है। हर आदमी को एक जैसा बना देना है। जबकि कोई दो आदमी एक जैसे नहीं है। एक जैसे बना देने की चेष्टा असफल होने को आबद्ध है, वह असफल होकर रहेगो, वह असफल हो गई है। ~ एक-एक आदमी का अनूठापन स्वीकार करना जरूरी है। अगर हमें मनुष्य को आध्यात्मिक बनाना है, तो आध्यात्मिकता युनिफॉरमिटी का नाम नहीं है। आध्यात्मिकता मिलिट्री की परेड नहीं है कि वहां एक
जैसी कवायद हो रही है कि सारे लोग एक जैसे खड़े हुए हैं। एक-एक आदमी के पास अपनी आत्मा है,
अपना व्यक्तित्व है। उस व्यक्तित्व को अपने ही ढंग से विकसित होने का मार्ग होना चाहिए।
● लेकिन अब तक धर्म के नाम पर हमने यहाँ किया है कि व्यक्ति को हमने समाज के ढांचे में ढालने की चेष्टा की है। समाज के ढांचे में ढाला गया व्यक्ति आध्यात्मिक तो हो ही नहीं पाता, पाखडी हो जाता है, हिपोक्रेट हो जाता है। क्योंकि उसे हम जो बनाने की कोशिश करते हैं वह बन नहीं पाता, फिर वह क्या करे? फिर वह धोखा देना शुरू करता है कि मैं बन गया है। भीतर से वह जानता है कि मैं नहीं बना हूँ। भीतर से अपराध अनुभव करता है। लेकिन जीने के लिए चेहरे बनाने फिर जरूरी हो जाते हैं। वह कहता है, मैं बन गया हूँ। भीतर रहता है अशात, भीतर रहता है पाप और अपराध से घिरा हुआ, और जाकर मंदिर में पूजा करता है। जब वह पूजा करता है, अगर कोई उसके प्राणों में झांक सके, तो पूजा को छोड़ कर उसके प्राणों में सब कुछ हो सकता है, पूजा उसके प्राणों में बिलकुल नहीं हो सकती।
लेकिन सोशल कनफरमिटो, समाज कहता है पूजा करना धर्म है, टीका लगाना धर्म है, चोटी बदाना धर्म है। धर्म जैसे कोई मिलिट्री की कवायद है कि आप इस इस तरह का काम कर ले तो आप धार्मिक हो जाएंगे। धर्म के नाम पर समाज ने एक व्यवस्था बनाई हुई है। उसके अनुकूल आप हो आए, आप धार्मिक हो गए। जब कि आध्यात्मिक होने का मतलब ही यह है कि आपको जो व्यक्तिगत चेतना है उसकी फ्लावरिंग हो, आपका जो व्यक्तिगत चेतना का फूल है वह खिले और आप जैसा आदमी इस
दुनिया में कभी नहीं हुआ। न राम आप जैसे थे, न बुद्ध आप जैसे, न महावीर आप जैसे। यही तो वजह है कि ढाई हजार साल हो गए महावीर को गए हुए दूसरा महावीर क्यों पैदा नहीं हो सका? क्या इसका कारण यह है कि लोगों ने महावीर बनने की कोशिश नहीं की? हजारों लोगों ने कोशिश को लाखों लोगों ने कोशिश की। वे ठीक कपड़े छोड़ कर महावीर के जैसे नग्न खड़े हो गए। आज भी वैसे लोग हैं। लेकिन उनमें से एक भी महावार को गरिमा, गौरव, आनंद को उपलब्ध नहीं हो सका क्यों नहीं हो सका है
पहली तो बात यह है कि कोई आदमी दूसरे जैसा नहीं हो सकता है। इसकी कोई संभावना नहीं है।
जरूरत भी नहीं है। वह दुनिया बहुत बेहूदी और बहुत बोरडम से भरी होगी। अगर बबई के पचास लाख
लोग रामचंद्र जो हो जाएं और धनुष-बाण लिए हुए घूमने लगे तो बहुत भवराने वाली हो जाएगी बबई।
या पचास लाख लोग ठीक महावीर जैसे हो जाए बबई में तो भी जीना दूभर हो जाएगा, लोग समुद्र में कूद कर आत्महत्या कर लेंगे क्योंकि इतना एक जैसा पन पवड़ाने वाला होगा। जीवन में है विभिन्नता अलग-अलग फूल, अलग-अलग रंग, अलग-अलग सुगधे, और इसलिए जीवन में एक रस है और एक आनंद है। नहीं व्यक्तियों को मिटाने की जरूरत नहीं है। एक-एक व्यक्ति को पूरी स्वतंत्रता देने की जरूरत है कि वह वही हो सके जो होने के लिए पैदा हुआ है। लेकिन अब तक की सारी शिक्षा धर्मों को यह
है- अध्यात्म के नाम पर हम यही सिखाते है-कास्ट जैसे हो जाओ गांधी जैसे हो जाओ। महावीर
जैसे हो जाओ। लेकिन कोई धर्म यह नहीं कहता कि अपने जैसे हो जाओ। दूसरे जैसे हो जाओ
दूसरे जैसे होने वाली आध्यात्मिकता झूठी होगी और उससे जो आदमी पैदा होंगे वे असली आदमी नहीं होंगे, ये कार्बन कापिया होंगे, असली नहीं और दुनिया को चाहिए असली आदमी, जिदा आदमी चाहिए जो अपने जैसा हो जिसके प्राणों में जो छिपा है उसे प्रकट करे. अभिव्यक्त करे। वह जो पैदा होने को हुआ है यही हो जाए।
ओशो
संकलनकर्ता
राम नरेश यादव
अध्यक्ष
जीवन जागृति मिशन इटावा
उत्तर प्रदेश