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मात्र 21 घंटे में लकड़ी की दो सौ सीट पर बनाई पेंटिंग बना आगरा की बेटी ने विश्व रिकार्ड बना फहराया परचम

 

मथुरा से अजय ठाकुर

गोवर्धन – लोक कला के बिना भारत की समृद्ध कला की परिभाषा अधूरी ही रह जाएगी। ऐसी ही एक लोककला है ‘वारली’, जिसे कहानियों की कला भी कहा जाता है। आगरा की बेटी ने इस कला में परचम लहराते हुए विश्व रिकार्ड बनाया है। ब्रजभूमि की ये भक्त जतीपुरा में बच्चों को इस कला की बारीकियां सिखा चुकी है।
आगरा के भूरका बाग कमला नगर की रहने वाली श्रुति राकेश शर्मा जब उंगलियों से अपनी कला को आकृति देती हैं तो बेजान कला में भी जान डाल देती हैं। वो कुछ पल में ही पेंटिंग्स बना देती हैं तो उंगलियों की स्पीड ने ही उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है। वारली कला में उनको महारथ हासिल है तो वाल आर्ट, कैनवास पेंटिंग्स, फैशन आर्ट, वुड आर्ट ने उनको कला की दुनिया का सितारा बना दिया। श्रुति के स्वजन राहुल ने वर्ल्ड रिकार्ड इंडिया के अध्यक्ष पावन सोलंकी को श्रुति के हुनर की जानकारी दी। कोरोना संक्रमण के कारण चार मई को महाराष्ट्र के भाईंदर में वर्ल्ड रिकार्ड टीम की निगरानी में श्रुति ने लाइव पेंटिंग्स बनाईँ। 21 घंटे में लकड़ी की 54 इंची 212 सीट पर वारली पेंटिंग्स बनाईं। वर्ल्ड रिकार्ड इंडिया के अध्यक्ष पावन सोलंकी ने उन्हें बधाई देते हुए मैडल और सर्टिफिकेट डाक से भिजवाया। श्रुति शर्मा ने बताया कि यह कला उन्होंने ‘सव्य’ संस्था में सीखी है। वर्ल्ड रिकार्ड जीत का श्रेय उन्होंने गिरिराजजी को दिया, तथा अपने पुरोहित से सोमवार को गिरिराजजी की पूजा का आयोजन करा रही हैं। श्रुति ने बताया कि
वारली कला में यह विशेषता होती है कि इसमें सीधी रेखा कहीं नजर नहीं आएगी। बिंदु से बिंदु ही जोड़ कर रेखा खींची जाती है। इन्हीं के सहारे आदमी, प्राणी और पेड़-पौधों की सारी गतिविधियां प्रदर्शित की जाती हैं। विवाह, पुरुष, स्त्री, बच्चे, पेड़-पौधे, पशुपक्षी और खेत, यही विशेष रूप से इन कलाकृतियों के विषय होते हैं।
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क्या है वारली लोक कला
– महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वरली जाति के आदिवासियों का निवास है। इस आदिवासी जाति की कला ही वारली लोक कला के नाम से जानी जाती है।
यह जनजाति महाराष्ट्र के दक्षिण से गुजरात की सीमा तक फैली हुई है। वरली लोककला कितनी पुरानी है यह कहना कठिन है। कला में कहानियों को चित्रित किया गया है इससे अनुमान होता है कि इसका प्रारंभ लिखने पढ़ने की कला से भी पहले हो चुका होगा। कला के जानकारों का विश्वास है कि यह कला दसवीं शताब्दी में लोकप्रिय हुई। इस क्षेत्र पर हिन्दू, मुस्लिम, पुर्तगाली और अंग्रेज़ी शासकों ने राज्य किया और सभी ने इसे प्रोत्साहित किया। 17वें दशक से इसकी लोकप्रियता का एक नया युग प्रारंभ हुआ जब इनको बाज़ार में लाया गया।