पुरानी लुकमान की एक कथा है। लुकमान पुराने ज्ञानियों में एक हुआ;कोई जीसस से तीन हजार साल पहले। मुहम्मद ने लुकमान का कुरान में बड़ेआदर से उल्लेख किया है एक पूरा अध्याय लुकमान के लिए समर्पित किया
है। दुनिया की ऐसी कोई भाषा नहीं है, जहाँ लुकमान का शब्द गहरे में प्रवेश नकर गया हो। जिनको लुकमान का कोई पता भी नहीं है, वे भी उसका उपयोगकरते हैं। लोग नाराज हो जाते हैं तो कहते हैं, ‘बड़े लुकमान बने बैठे हैं।’ उन्हें
पता भी नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। कहावत है कि लुकमान को क्या समझाना!लुकमान से ज्यादा कोई समझदार भी नहीं हैं। लुकमान से किसी ने पूछा कि तुझे
इतनी समझदारी कैसे मिली? लुकमान ने कहा, ‘जब मैं नासमझ हो गया।’लुकमान से किसी ने पूछा, ‘तुम इतने समादृत क्यों हो?’ लुकमान ने कहा, ‘जब
मैने आदर की आकांक्षा छोड़ दी।’
लुकमान की एक छोटी कहानी है। और लुकमान ने कहानियों में ही अपनासंदेश दिया है। ईसप की प्रसिद्ध कहानियां आधे से ज्यादा लुकमान की हीकहानियां हैं, जिन्हें ईसप ने फिर से प्रस्तुत किया है। लुकमान कहता है, एक
मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी।मक्खी बहुत भिनभिनाई, आर्वाज की, और कहा, ‘भाई।’ मक्खी का मन होता है
हाथी को भाई कहने का। कहा, ‘भाई। तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना।वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछसुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरता था बड़ी पहाड़ी नदी थी,भयंकर गड था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए। अगर
ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’ हाथी
के कौन में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया।खो के बिदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखदहुई। तीर्थयात्रा थी, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं। कोई कामहो, तो मुझे कहना।’तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी। उसने कहा, ‘तू कौन है
कुछ पता नहीं। कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी,इसका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी।
लुकमान कहता है, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारेहोने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इस बड़े अस्तित्व में हाथी और मक्खी केअनुपात से भी हमारा अनुपात छोटा है। क्या भेद पड़ता है? लेकिन हम बड़ा
शोरगुल मचाते हैं। हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं! वह शोरगुल किसलिये है? वहमक्खी क्या चाहती थी? वह चाहती थी हाथी स्वीकार करे, तू भी है; तेरा भीअस्तित्व है। पूछ चाहती थी।
हमारा अहंकार अकेले तो नहीं जी सक रहा है। दूसरे उसे मानें, तो ही जीसकता है। इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे माने,ध्यान दें, हमारी तरफ देखें; उपेक्षा न हो। हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों के लिये,
स्नान करते हैं तो दूसरों के लिये, सजाते-संवारते हैं तो दूसरों के लिये। धन
इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों के लिये। दूसरे देखें और स्वीकार करें कि
तुम कुछ विशिष्ट हो। तुम कोई साधारण नहीं। तुम कोई मिट्टी से बने पतले नहीं
हो। तुम कोई मिट्टी से आये और मिट्टी में नहीं चले जाओगे, तुम विशिष्ट हो।
में तुम्हारी गरिमा अनूठी है। तुम अद्वितीय हो। अहंकार, सदा इस
आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।
संकलन कर्ता
राम नरेश यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष
दिव्य जीवन जागृति मिशन इटावा
उत्तर प्रदेश
मोबाइल नंबर8218141639