शांतिनाथ की अशांत
। मैंने सुना है-एक आदमी महा क्रोधी था। इतना क्रोधी या कि उसने अपनी
पलों को धक्का दिया कुएँ में। पत्नी मर गई। वह बड़ा घबराया। उसी दिन
गाँव में एक जैन मुनि आए थे। वह उनके पास गया, चरणों में गिर पड़ा और
कहा, “मुझे दीक्षा दें।” जैन मुनि ने कहा, “इतनी जल्दी दीक्षा!” उसने कहा,
“इसी समय दें। जैन मुनि ने कहा, “साध सकोगे?” उसने कहा, “जो मैं न
साथ सकूँ, वह कोई नहीं साध सकता। कहो क्या साधना है?” जैन मुनि ने कहा,
‘नग्न होना पड़ेगा।” उसने तत्क्षण वस्त्र फेंक दिए। जैन मुनि भी चोंका-बड़ा
साहसी आदमी! साहसी नहीं, वह सिर्फ क्रोधी है। हर काम में उसके क्रोध की
अग्नि प्रचलित होती थी। उसको तुमने चुनौती दे दी, उसके क्रोध को जगा दिया।
“लेकिन तुम संन्यास लेना क्यों चाहते हो” जैन मुनि ने पूछा। उसने कहा,
महा क्रोधी हूँ। मैंने अपनी पत्नी को मार डाला। अब बहुत हो गया, मुझे
शांति का पाठ दें।” जैन मुनि ने दीक्षा दी और नाम दिया-शातिनाथ। जैन मुनि
दें
ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “मन बहुत से देखे हैं लोग। वे कहते हैं कि
वत्त लेंगे संन्यास, परसों लेंगे संन्यास; फिर ले भी लेते हैं, तो भी वर्षों लगते
है नान दिगंबर होने में; तुमने एक क्षण में वस्त्र उतार दिए, तुम साहसी आदमी
था। यह कोई शांति की घोषणा नहीं थी, यह क्रोध का ही प्रज्वलन था। क्योंकि
वह आदमी महा क्रोधी था। यह संन्यास भी उसके क्रोध का ही परिणाम
एकदम से कोई पत्नी को धक्का मारकर शांत हो जाता है! पली को धक्का मारा,
अब अपने को धक्का मार दिया कुएं में उसने बस इतना ही समझना।
फिर उसकी बड़ी ख्याति हो गई। ख्याति होनी ही थी, क्योंकि वह खूब
अपने को सताने लगा। दो-दो तीन-तीन दिन उपवास करे, तब एकाध बार भोजन
ले। महीनों का उपवास करने लगा, कॉय पर सोए, पत्थरों पर पढ़ा रहे धूप में ही पड़ेगा। सारे मुनि धीरे-धीरे दिल्ली पहुँच जाते हैं।
खड़ा रहे। सर्दी में भी पानी में खड़ा हो जाए, जहाँ बर्फ जम रही हो। उसकी
ख्याति फैलने लगी। ऐसे ही लोगों की तो ख्याति फैलती है। लोग दूर-दूर से उसके
दर्शन करने आने लगे। अंततः वह दिल्ली पहुंच गया, क्योकि दिल्ली तो पहुंचना
जैन मुनियों के लिए नियम है कि वे एक जगह तीन दिन से ज्यादा न
रुके। अब यह बड़ी झंझट की बात है। अगर वो काल हा, तो चार महान ज्यादा
से ज्यादा एक जगह रुक सकते हैं। फिर उन्होंने तरकीब निकाल ली। वे दिल्ली
को एक नगर मानते ही नहीं। वे दिल्ली को कई नगर मानते है। बबई का भी
वे एक नगर नहीं मानते, कई नगर मानते हैं। तरकीब निकाल ली, गाणत तो
आदमी हर जगह बिठा लेता है। यहाँ कृष्णा नगर, तिलक नगर…अलग-अलग
नगर है। ता कृष्णा नगर में रहते हैं, फिर तिलक नगर में चले जाते हैं, फिर
तिलग नगर से कृष्णा नगर में आ जाते हैं। मगर दिल्ली नहीं छोड़ते!
शातिनाथ भी दिल्ली पहुँच गए। उनके गाँव से एक आदमी दिल्ली आया
था। सोचा कि शांतिनाथ जी बड़े प्रसिद्ध हो गए हैं, इनके दर्शन कर आऊँ। बचपन
का साथी था उनका। वह मान तो नहीं सकता था कि उसका क्रोध चला गया
होगा, क्योंकि वह आदमी महा क्रोधी था। अगर इसका क्रोध चला जाए, तो दुनिया
में सबका क्रोध चला जाए। मगर कौन जाने; हो भी गया हो, चमत्कार भी तो
घट जाते हैं! असंभव कुछ लगता हो, तो भी होता नहीं। संभव है, हो गया हो।
वह उनके पास पहुँचा। शांतिनाथ बैठे थे, सिंहासन पर नग्न। उन्होंने देख
लिया, पहचान तो लिया कि बचपन का साथी है। पहचानते भी कैसे ना! मगर
अब वे हो गए थे शांतिनाथ महामुनि। पहचान लिया, मगर पहचाना नहीं। क्या
पहचानना ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को! देख लिया और अनदेखा कर दिया।
मित्र की समझ में आ गया कि देख तो लिया है, पहचान भी लिया है,
फिर भी आँख फेर ली। वह पास सरका। उसने कहा, “महाराज, क्या मैं आपका
नाम पूछ सकता हूँ?” पुराना जानकार था उनके बाबत । उन्होंने कहा, “मेरा नाम!
अखबार नहीं पड़ते? कौन मेरा नाम नहीं जानता? नाम पूछने चले आए!”
उसने कहा, “महाराज, मैं जरा गैर-पढ़ा-लिखा हूँ। अखबार वगैरह की फुरसत
भी नहीं है। मूढ़ समझें मुझे, नाम बता ही दें।”
उन्होंने कहा, “मेरा नाम शांतिनाथ है।” मगर जिस ढंग से उन्होंने कहा-मेरा
नाम शांतिनाथ है, उससे मित्र समझ गया कि कोई बदलाव नहीं हुआ। एक अकड़
ने
थी कहने में…। थोड़ी देर इधर-उधर की बात चलती रही। मित्र ने पूछा, “महाराज,
मरी स्मृति जरा कमजोर है। मैं भूल गया, आपका नाम।” अब तो महाराज को
क्रोध आ गया। उन्होंने कहा, “सुनते हो या नहीं, बहरे तो नहीं हो? मेरा नाम
है-शांतिनाथ।
मित्र ने कहा, “धन्यवाद महाराज!” फिर इधर-उधर की बात चली। उसने
कहा, “महाराज! अब मैं जा ही रहा हूँ, अपना नाम तो बता दें।” जो कमंडल
लेकर वे चलते थे, उठाकर उसकी खोपड़ी पर मार दिया और कहा, “हजार दफे
रह दिया शांतिनाथ, मगर तुझे होश नहीं आता?”
उस मित्र ने कहा, “अब मुझे बिलकुल होश आ गया। यह जो आपका
कमंडल सिर में लगा, उससे सब बात साफ हो गई। आप वही हो, जरा भी भेद
नहीं हुआ है।
(कपड़े उतार देने से कोई भेद नहीं होगा। नग्न खड़े हो जाने से कोई भेद
नहीं होगा। सिर के बल खड़े हो जाने से भेद नहीं होगा। बुद्ध का तरह आसन
मारकर बैठ जाने से कुछ भेद नहीं होगा। यदि भेद करना हो, तो चैतन्य का
बदलना पड़ता है। ध्यान के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं होता है।)
ओशो
सौजन्य से देवी जीवन जागृति मिशन इटावा( उत्तर प्रदेश)
मोबाइल नंबर8218141639