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इलेक्ट्रो होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति में इंकलाब पैदा करने में जुटे लखनऊ के डॉ. अशोक कुमार मौर्या

 

इलेक्ट्रो होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति में इंकलाब पैदा करने में जुटे लखनऊ के डॉ. अशोक कुमार मौर्या

न्यूज़ लखनऊ: अजल भी कांप उठे वो शबाब पैदा कर। तू इंकलाब की आमद का इंतजार ना कर, जो हो सके तो खुद इंकलाब पैदा कर…

और इलेक्ट्रो होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति में एक ऐसा ही इंकलाब पैदा करने की कुव्वत की है, लखनऊ के डॉ. अशोक कुमार मौर्या ने। डॉ. मौर्या का नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है तो। इलेक्ट्रो होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति से जुड़े प्रेक्टिशिनियर्स उनका नाम अदब से लेते है। डॉ. अशोक कहते हैं कि आठंवी कक्षा से ग्रेजुएशन के बीच में चिकित्सा क्षेत्र में जाने का उनका जुनून एलोपैथी, होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति से गुजरता हुआ इलेक्ट्रो होम्योपैथी पर ले आया। 26 जनवरी 1995 को उन्होने फिलास्फी और फार्मेसी पुस्तक लिखना शुरू किया। जो लगभग 3 साल की अथक परिश्रम के बाद पूर्ण हुई लेकिन दुर्भाग्यवश छप नहीं पाई है । पिछले साल प्रकाशित हुई डॉ. अशोक कुमार मौर्या की इलेक्ट्रो होमियोपैथी की वास्तिवक बिजलियां पुस्तक की लोकप्रियता चरम पर रही हैं। वर्तमान में वे फिलास्फी आफ “कोहोबेशन व डायलूशन” नामक पुस्तक लिखने में व्यस्त हैं। अपने सहयोगी डॉ. योगेंद्र कुशवाहा की मदद से सोशल मीडिया में अपनी इलेक्ट्रो होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति को प्रफुल्लित करने के लिए पोस्ट डालते रहते है। जिस पर उन्हें जोरदार रिस्पांस मिल रहा है। डाक्टर अशोक कुमार मौर्या अपने संस्मरणों का जिक्र करते कहते हैं कि वे जब हाई स्कूल में पहुंचे तो उन्हें साइंस में एडमिशन न मिलकर एग्रीकल्चरल साइंस में मिला। उनकी दवा में रुचि तो थी ही । उस समय हाई स्कूल में भी एनिमल हसबेंडरी का थोड़ा बहुत कोर्स चलता था। इसलिए पशुओं की दवाओं के विषय में उनकी दिलचस्पी बनी रही। गर्मियों की छुट्टी में सारा दिन वो किसी डॉक्टर के पास में गुजरते थे। उनसे डिस्केशन करना और दवाओं के रैपर देखना उनकी जानकारी लेना दिनचर्या बनी रहती थी। एलोपैथिक दवाओं से लेकर होम्योपैथिक आदि के विषय में लगातार वृद्धि होती रही। एस. पी. शुक्ला लेक्चरर एनिमल हसबेंडरी, आर.पी शर्मा फिजिक्स आदि का बहुत साथ रहा। उन्होंने आयुर्वेद महाविद्यालय लखनऊ का रुख किया संस्कृत में पकड़ नहीं होने कारण बात नहीं बनी। एनिमल हसबेंडरी की तरफ दिमाग दौड़ाया उस समय इज्जत नगर बरेली में इसके कोर्स चलते थे लेकिन वहां जाना मुश्किल था । इसलिए उन्होंने 1977 में एलोपैथिक प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया जो 1992 तक चलती रही ।
एक दिन डॉ अनवारुल हक ने इलेक्ट्रो होम्योपैथी “बोर्ड आफ इलेक्ट्रो होम्यो पैथिक मेडिसिन ” बारे बताया। वहां उन्हें सुधीर मोहन मिले फिर, पता चला लखनऊ में एक कालेज “अवध इलेक्ट्रो होम्यो पैथिक मेडिकल कॉलेज” के नाम से है । वहां पर एडमिशन ले लिया और पढ़ाई शुरू कर दी । वहां पर अशोक कुमार मौर्या को फिलास्फी और फार्मेसी के दो टीचर वी.डी. जोशी, व के.पी. सिंह मिले । यहां कैलाश श्रीवास्तव को जिम्मेदारी दी गई कि औषधियां तैयार करें । मुझे (अशोक कुमार मौर्या) जिम्मेदारी दी गई कि पौधो की खोज करें और राजीव मोहन रस्तोगी को जिम्मेदारी दी गई कि बनी हुई औषधियों का प्रचार प्रसार करे । इस पर काम भी शुरू कर दिया गया और बहुत हद तक सफलता भी मिली लेकिन यह बात बहुत दिनों तक स्थिर नहीं रह पाई। तत्पश्चात वह सिटी के दूसरे कालेजो मे इलेक्ट्रो होम्यो पैथी और बायोकैमिक औषधियां पढ़ाते रहे । इधर, औषधि बनाने की योजना प्रगति पर थी आवश्यकता इस बात की थी कि कोहोबेशन कैसे किया जाए ? क्योंकि कॉलेज में जो कोहोबेशन पढ़ाया जाता था वह किसी हालत में कोहोबेशन नही था वह फर्मेंटेशन था । अब कोहोबेशन अप्रेटस तैयार करने की जिम्मेदारी कैलाश श्रीवास्तव ने मौर्या को सौपी कुछ दिनों में ही उन्होंने अप्रेटस तैयार कर दिया लेकिन समस्या यह थी कि 38 डिग्री सेंटीग्रेड पर स्पेजिरिक कैसे निकाली जाए ? यह एक बहुत बड़ी टेढ़ी खीर थी और बात भी समझ में नहीं आ रही थी क्योंकि स्पेजिरिक के जो गुण दिए गए हैं उसके आधार पर 38 डिग्री सेंटीग्रेड पर कोहोबेशन किया जाता है स्पेजिरिक रंगहीन, गंध हीन , स्वाद हीन होती है । केवल स्वस्थ शरीर पर काम करती है । यह विशेष गुण वाली स्पेजिरिक तैयार करनी थी लेकिन रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था।
इसी बीच कैलाश श्रीवास्तव को एक साइंटिस्ट से मिले और पूरी बात समझाई उस साइंटिस्ट ने हमारे अपरेटस में एक पार्ट जोड़ दिया जिससे सारी चीजे आसान हो गई है। इस अपरेटस को कैलाश श्रीवास्तव ने अपने मकान पर लगाया था और कई पौधों व जीवो की स्पेजिरिक निकाली गई । उसके रिजल्ट बहुत अच्छे देखे गए परंतु जैसे इलेक्ट्रो होम्योपैथी के साथ आज तक होता आया है वैसे उस समय भी हुआ। कैलाश श्रीवास्तव की 1999 में स्वर्गवासी हो गए। डॉ. अ‌शोक कहते हैं कि 2001 में उन्होंने स्वयं कोहोबेशन का अपना प्लांट लगाया और दवाइयां तैयार करने लगा । 2014 तक डायलूशन, सीरप आयल, ऑइंटमेंट आदि बनते रहे। जिनके परिणाम आश्चर्यजनक थे। 2014 में सेहत खराब हो गई और औषधियां बनाना भी बंद कर दिया । वह कहते हैं कि उनका उद्देश्य है कि इलेक्ट्रो होम्योपैथी के सही तथ्यों को लोगों तक पहुंचाया जाए और गुमराह हो रहे लोगों को सही रास्ता दिखाया जाए लेकिन यह तभी संभव हो सकता है। जब सब साथ दें । हमारे लिखी हुई चीजों को पढ़ें उस पर प्रश्न करें । बुद्धिमान लोगों को हमारी फेसबुक से जोड़ें ताकि हमारी बताई हुई बातों का विस्तार हो सके और बहुत सारे प्रश्न हमारे पास आएं ताकि हम उसका उत्तर देने का प्रयास करें। डॉ अशोक कहते हैं कि पौधौ की खोज करने में उनके एक सहयोगी डा. एच. सी. मौर्य का नाम हमेशा याद रहता है ।