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औरैया, भक्त प्रहलाद लीला सुन स्रोताओ के छलके आंसू*

*औरैया, भक्त प्रहलाद लीला सुन स्रोताओ के छलके आंसू*

*औरैया।* बिधूना तहसील क्षेत्र के एरवाकटरा उमरैन के ग्राम रमपुरा में चल रहीं श्रीमद भागवत कथा के चौथे दिन निशा शास्त्री जी ने कथा स्रोताओ को भक्त प्रहलाद की कथा सुनाई श्रीमद भागवत कथा में भक्त प्रहलाद की कथा सुन स्रोताओ के छलके आंसू कथा वाचक निशा शास्त्री ने श्रीमद भागवत कथा के चौथे दिन भक्त प्रहलाद लीला में बताया कि श्रीहरि के अनन्य भक्त प्रहलाद जोकि दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे एक दिन भक्त प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकशिपु को प्रणाम किया और श्रीहरी का नाम लेते ही हिरण्यकशिपु के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे, उसने कांपते हुए होठों से प्रह्लाद के गुरु से कहा अरे दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा करके इस बालक को मेरे परम शत्रु की स्तुति से युक्त शिक्षा कैसे दी, गुरूजी ने कहा – ” दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत नहीं होना चाहिए। आपका पुत्र मेरी सिखाई हुई बात नहीं कह रहा है। “ हिरण्यकशिपु बोला – ” बेटा प्रह्लाद ! बताओ तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरूजी कहते हैं कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया ही नहीं है। “प्रह्लाद बोले – ” पिताजी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक हैं। उनको छोड़कर और कौन किसी को कुछ सीखा सकता है। “हिरण्यकशिपु बोला – ” अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू प्रशशंक होकर स्तुति कर रहा है, वह मेरे सामने कौन है ? मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौत के मुख में जाने की इक्षा से बार-बार ऐसा बक रहा है। “ऐसा कहकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अनेकों प्रकार से समझाया पर प्रह्लाद के मन से श्रीहरि के प्रति भक्ति और श्रद्धाभाव को कम नहीं कर पाया। तब अत्यंत क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपने सेवकों से कहा ” अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है। इसको मार डालो। अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यह शत्रुप्रेमी तो अपने कुल का ही नाश करने वाला हो गया है। “हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उसके सैनिकों ने प्रह्लाद को अनेकों प्रकार से मारने की चेष्टा की पर उनके सभी प्रयास श्रीहरि की कृपा से असफल हो जाते थे।
उन सैनिकों ने प्रह्लाद पर अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से आघात किये पर प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। उन्होंने प्रह्लाद के हाथ-पैर बाँधकर समुद्र में डाल दिया पर प्रह्लाद फिर भी बच गए। उन सबने प्रह्लाद को अनेकों विषैले साँपों से डसवाया और पर्वत शिखर से गिराया पर भगवद्कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ।


रसोइयों के द्वारा विष मिला हुआ भोजन देने पर प्रह्लाद उसे भी पचा गए। जब प्रह्लाद को मारने के सब प्रकार के प्रयास विफल हो गए तब हिरण्यकशिपु के पुरोहितों ने अग्निशिखा के समान प्रज्ज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दी।उस अति भयंकरी कृत्या ने अपने पैरों से पृथ्वी को कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रह्लाद जी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया। पर उस बालक के छाती में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर निचे गिर पड़ा। उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालक पर कृत्या का प्रयोग किया था। इसलिए कृत्या ने तुरंत ही उन पुरोहितों पर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गई। अन्य प्रचलित कथाओं के अनुसार कृत्या के स्थान पर होलिका का नाम आता है जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी पर ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ और होलिका जल कर भस्म हो गई। भगवान का नृसिंह अवतार हिरण्यकशिपु के दूतों ने उसे जब यह समाचार सुनाया तो वह अत्यंत क्षुब्ध हुआ और उसने प्रह्लाद को अपनी सभा में बुलवाया और हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से कहा ” रे दुष्ट ! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी बहकी बातें करता है, तेरा वह ईश्वर कहाँ है ? वह यदि सर्वत्र है तो मुझे इस खम्बे में क्यों नहीं दिखाई देता ? “
तब प्रह्लाद ने कहा – ” मुझे तो वे प्रभु खम्बे में भी दिखाई दे रहे हैं। “यह सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध के मारे स्वयं को संभाल नहीं सका और हाथ में तलवार लेकर सिंघासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खम्बे में एक घूँसा मारा। उसी समय उस खम्बे से बड़ा भयंकर शब्द हुआ और उस खम्बे को तोड़कर एक विचित्र प्राणी बाहर निकलने लगा जिसका आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मनुष्य का था। यह भगवान श्रीहरि का नृसिंह अवतार था। उनका रूप बड़ा भयंकर था। उनकी तपाये हुए सोने के समान पीली पीली आँखें थीं, उनकी दाढ़ें बड़ी विकराल थीं और वे भयंकर शब्दों से गर्जन कर रहे थे। उनके निकट जाने का साहस किसी में नहीं हो रहा था। यह देखकर हिरण्यकशिपु सिंघनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा। तब भगवान भी हिरण्यकशिपु के साथ कुछ देर तक युद्ध लीला करते रहे और अंत में उसे झपटकर दबोच लिया और उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर गिरा लिया और खेल ही खेल में अपनी नखों से उसके कलेजे को फाड़कर उसे पृथ्वी पर पटक दिया। फिर वहाँ उपस्थित अन्य असुरों और दैत्यों को खदेड़ खदेड़ कर मार डाला। उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की ऊँची सिंघासन पर विराजमान हो गए। उनकी क्रोधपूर्ण मुखाकृति को देखकर किसी को भी उनके निकट जाकर उनको प्रसन्न करने का साहस नहीं हो रहा था। हिरण्यकशिपु की मृत्यु का समाचार सुनकर उस सभा में ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर, सभी देवगण, ऋषि-मुनि, सिद्ध, नाग, गन्धर्व आदि पहुँचे और थोड़ी दूरी पर स्थित होकर सभी ने अंजलि बाँध कर भगवान की अलग-अलग से स्तुति की पर भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ। तब देवताओं ने माता लक्ष्मी को उनके निकट भेजा पर भगवान के उग्र रूप को देखकर वे भी भयभीत हो गयीं। तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा – ” बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान क्रुद्ध हुए थे, अब तुम्ही जाकर उनको शांत करो। “तब प्रह्लाद भगवान के समीप जाकर हाथ जोड़कर साष्टांग भूमि पर लोट गए और उनकी स्तुति करने लगे। बालक प्रह्लाद को अपने चरणों में पड़ा देखकर भगवान दयार्द्र हो गए और उसे उठाकर गोद में बिठा लिया और प्रेमपूर्वक बोले ” वत्स प्रह्लाद ! तुम्हारे जैसे एकांतप्रेमी भक्त को यद्यपि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती पर फिर भी तुम केवल एक मन्वन्तर तक मेरी प्रसन्नता के लिए इस लोक में दैत्याधिपति के समस्त भोग स्वीकार कर लो। भोग के द्वारा पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे। “ यह कहकर भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।

रिपोर्ट :-: आकाश उर्फ अक्की भईया संवाददाता