फोटो:–एक रूई बेचने वाले की दुकान पर सन्नाटा
जसवंतनगर(इटावा)। भीषण सर्दी में गरीब और वृद्ध कपकपा रहे हैं। कम्बलों से ऐसी सर्दी में बचाव मुश्किल हो गया है। अब तो दिन में अलाव और रात में केवल रजाई ही सहारा बन रहे हैं।
हालांकि कंबल सहज उपलब्ध हैं।100 से लेकर 300 – 400 रुपए तक में कंबल मिल जाता है। मगर इन कंबलों से सर्दी नहीं बचती। कंबल तो केवल बिछाने में ही थोड़ा बहुत सर्दी से बचाव करते हैं अथवा कहीं ओढ कर बैठने में राहत देते हैं।
ऐसी सर्दी में तो रुई भरी रजाई ही काफी कुछ मुफीद साबित होती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर लोग रजाई ही ओढ़ते हैं। खादी के कपड़े की बनी हुई रजाई और उसमें सही मात्रा में यदि रुई भरी हो ,तो फिर चाहे जैसी कड़ाकेदार सर्दी हो, रात में चैन की नींद आ जाती है,वरना कंबलों में सिकुड़कर ही रात काटनी पड़ती है, क्योंकि वूलिन कंबलों की खरीद करना अब हर किसी के बस की बात नहीं है। सिंथेटिक कंबल भले ही सस्ते आ जाते, मगर ठंड थोड़े ही बचाते।
गांधी आश्रमों के कंबल अच्छा काम करते हैं ,मगर वह गरीबों की जेब की पहुंच से बाहर ही होते हैं।
पहले एक रजाई आराम से ढाई सौ से तीन सौ रुपए में बन जाती थी। मगर अब केवल रजाई का खोल ही ढाई सौ, तीन सौ रुपयों का आता है। वह भी सिंथेटिक कपड़े का बना होता है।
सूती या खद्दर की रजाई का खोल अब चार पांच सौ रुपए में आता है। पहले रूई 50 रुपये किलो बिकती थी। अब पुरानी ही 80-90 प्रति किलो भाव पर बिक रही है।नई का भाव 120 से लेकर 150 रुपए किलो तक है। इस वजह से एक रजाई बनाने में यदि 2 किलो रूई ही उसमे डलवाई जाए ,तो रजाई 700-800 रुपए तक की बनकर तैयार होती है,जो गरीबों की पहुंच से बाहर है। इसलिए गरीब 200 या 300 रुपयों का कंबल लेकर रात में सर्दी से गुजारा करता है।
महंगाई के कारण अब हर किसी की रजाईयां बनवाने की हिम्मत नही पड़ती। इसलिए पहले रुई की धुनाई करने वाले धुनाह लोग खूब रजाई बनाने का काम करते थे। अब इनकी संख्या कम हो गई है और मशीनों से रुई की धुनाई की जाने लगी है और रजाईयां बनाई जाती हैं। धुनाह पेशे का काम लगभग छिड़ गया है।
*वेदव्रत गुप्ता